Friday, October 2, 2020

* सकारात्मक लघु कथाएं * दादी के आर्यव बेटू के लिये

 हम सबके लाडले प्रिय *आर्यव बेटू* को

*जन्म दिवस की अनंत शुभकामनाएं*

*माँ पापा* के साथ सबको *हार्दिक बधाई।*


कुछ पंक्तियां तुम्हारे लिये


जीवन की मुस्कान बनो तुम ,

फूल खिला दो क्यारी क्यारी।

नितनई सफलता के सुमनोंसे,

महके जीवन की फुलवारी।

प्रेरणा अच्छी मन में संजोए ,

जीवन में खुशीसे आगे बढ़ना।

मेहनत और सद्प्रयासों से,

तुम अपनी मंजिल पाना।


प्यार व अनंत शुभाशीष। 

मम्मी पापा को स्नेहिल बधाई व स्नेह कहना।

तुम्हारी सदैव स्नेही दादी 

अलका मधुसूदन पटेल 


*सकारात्मक लघु कथा*


लेखिका श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल


1 *सिम्बिओसिस* *माँ-बेटा*


स्थूलकाय रेवाबाई अपने वृद्ध शरीर से धीरे धीरे चलती पर अपने सब घरों में तेजी से घरेलू काम बर्तन झाड़ू निबटाती। शाम को उसके कमरे के बाहर ही चूल्हा जलता ,उसके बनाये खाने की खुशबू दूर दूर तक फैल जाती।दोनों वक्त का खाना एक साथ पकाकर रख लेती। उसके साथ रहने वाला हट्टा कट्टा मुन्ना कभी सब्जी काटता , रोटी सेंकता , पानी लेकर आता। बाकी दिन भर घूमता फिरता , काम पर कम ही जाता। देखने वालों को आश्चर्य भी होता। एक दिन मैंने मौका निकालकर पूछ ही लिया। “अम्माजी इस उम्र में तुम दिन भर काम करती हो ,बड़ी मुश्किल से कमाती हो और तुम्हारा ये बेटा बस बैठा बैठा खाता है।” 

“अरे ! ये मेरा बेटा कहाँ है साब ----”  

इशारा किया उसने।

“ ये मेरे पड़ोसी महबूब भाई का लड़का है ,मां नहीं रहने से ,मरते मरते इसका पिता मेरे हाथ में ही इसको दे गया।” 

"थोड़ा दिमाग से कमजोर है पर ये दिन भर मेरी देखभाल करता है। खाना बनाकर खिलाता है, हार बीमारी में दवाई लाता है । इस बुढ़ापे में शरीर को सेवा की जरूरत भी पड़ती है ,कोई तो चाहिए सम्हालने के लिए। 

हाँ  जब काम मिलता है तो कमाता भी है।”

मुन्ना को दूर से आता देखकर असीम सुख-दुलार से भर उठीं उसकी सूखी आंखें । उसने आते ही कई फल व सब्जी लाकर उनकी टोकनी भर दी।

मुझे बचपन में पढ़े वनस्पति शास्त्र  के सिम्बिओसिस का ध्यान आ गया। जहाँ दो पेड़ पौधे बिल्कुल अलग रूप रंग गुणों कभी एक साथ मिलकर रहते हैं । बिना किसी रिश्ते के  एक दूसरे पर पूरी तरह आश्रित होकर।

 मानव जीवन भी कितने अनोखे रूप प्रदर्शित करते हैं। निराश्रित होकर  बिना कुछ कहे अपने दायित्व को  *स्वाभिमान* से सम्हालकर रखते हैं ।

नए स्वरूप के कठोर यथार्थ रूप में।

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2 *रिश्ते अपनो के*


बरसों पूर्व रमेश गांव से शहर पढ़ने आया। पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी मिल गई। संयोग से प्रेम विवाह हो गया। स्वाभाविक वहीं रच-बस गया। मां-पिता घर-माटी का मोह छूट गया। हाँ गांव यदा-कदा जाता रहता ,रुपये पैसे भेजते रहता। पत्नी को नहीं मना पाया कभी गाँव जाने को । न जाती न बच्चों को भेजती। हवा रास नहीं आएगी ,एटमॉस्फियर ठीक नहीं, ,पॉल्युशन होगा । सुसम्पन्न ,आधुनिक वातावरण में बच्चे बड़े हो चले। रमेश को मलाल रहता ,इन्हें भी घर जमीन दिखलाकर रिश्तेदारों से मिलवा दूं।

       तभी मां की बीमारी की ख़बर ने हिलाकर रख दिया। गांव जाते वक्त चौदह वर्षीय सतीश ने पहल की “पापा मैं चलूं ,चेंज के साथ पिकनिक हो जाएगी ,  छुट्टियां चल ही रहीं हैं।” 

 गर्व से भर गया वो। तभी उसकी माँ ने टोका ,”अरे कहाँ जाने लगे ,एडजस्ट नहीं कर पाओगे, लाइफ बड़ी हार्ड होती है वहां ,धूल-मिट्टी,कच्चे-पक्के मकान,जाकर देख चुकी हूं ।“ 

माँ की बात अनसुनी कर पिता के साथ चल पड़ा ,पर छुटकी को माँ ने रोक लिया। पिता-पुत्र ने गांव के घर में प्रवेश किया। सतीश बड़े आश्चर्य व आनंद से कबेलू वाले घर की रोशनदार छत को देखता, वहां का खुलापन ,बाहर औसारा ,परछी ,ताजा लिपा चमकता कच्चा फर्श। "वाह! कितना बड़ा खुला घर है।

 बड़ी प्यारी भीनी सी घर की खुशबू।" पहली बार नाती को घर आया देख 'अम्मा बाबू' तो मगन हो गए । गांवके भाई बंदों की भीड़ लग गई । बीमार मां ,वृद्ध पिता की चुस्ती-फुर्ती बढ़ चली। अशक्त दादी माँ ने लोटा भर गाढ़ा मलाईदार दूध कुनकुनाकर सामने रख दिया। "लो हाथ मुँह धो कर पहिले इसे पी लो बबुआ तब नहाकर कपड़े बदलना,थक गए होगे।" सतीश ने झट लोटा उठाया व एक सांस में गटागट पीकर तृप्ति से सांस ली। ";कितना बढ़िया रबड़ी जैसा सौंधा दूध है ,सच्ची दादी अम्मा बड़ी तेज भूख लग गई थी।" अम्मा बोली ,"अभी कहाँ ,तनिक कपड़े बदलकर फ्रेश हो लो फिर आओ।"आनन फानन में सतीश बेटे हाजिर। तब तक दादी माँ ने एक कटोरे में सत्तू घोल कर रख दिया। पूरी तन्मयता के साथ स्वाद ले लेकर उसे खाते देख रमेश आश्चर्य से देखता रहा। 

नाक चढ़ाकर मुश्किल से मलाई निकालकर दूध पीनेवाला ,अंडे, बर्गर, पिज़्ज़ा, सैंडविचेस, कॉर्नफ्लैक्स खानेवाला ये उसी का बेटा है क्या ?

 तभी "वाह !दादी ये क्या बढ़िया है, ,इतना अच्छा मीठा टेस्टी सत्तू तो पहिली बार खाया मैने।"-"मैं बाहर तक घूमकर देख लूं।आपका घर नहीं हम सबका घर"

"हाँ ठीक है जाओ ,पर इधर सुनो।" ,कहकर लाड़ से अपनी साड़ी के आंचल से उसका मुंह पोंछकर ,उसी में बंधा एक मुड़ा सा पांच का नोट दिया। "लो सामने वाले हल्कू भैया की दुकान से मीठा भी ले लेना।"-"तब तक तेरी पसंद की हलुआ पूरी आलू साग बनाती हूँ।"

सतीश तो पचास रु से कम में उसकी माँ से कभी नहीं मानता था। खुशी से दादी से नोट लेकर दो मिनिट में जलेबी का दोना लेकर लौट भी आया। एक टुकड़ा दादाजी के व एक टुकड़ा दादी के मुँह में जबर्दस्ती भर दिया। और खिलखिलाकर खुद खाने लगा। अत्यधिक खुशी से दादी-दादा के तो शब्द ही नहीं निकले ,आंखों से आंसू बह चले। बाबूजी ने कुछ न कहकर अपनी बूढ़ी बांहों में भर लिया उसको। दादी भी,"अरे पहिले तू तो खा", कहकर उसके पीछे दौड़ चली,

आगे आगे सतीश पीछे निहाल-निढाल दादी। आनंद के अतिरेक में नाती ने दुबली सी दादी को उठाकर घुमा दिया चारों ओर। "अरे ! छोड़ रे भैया कितना नचा दिया ,गिर जाऊंगी मैं।"

जोर से हंसकर बोला ,"कितना मजा आ रहा है दादी अम्मा यहां और अभी तो आपकी छुटकी आई नहीं है ,वो तो सच में आपको नचवा देती ,अपनी फरमाइशों से।"

 "ओह ! कितना अपूर्व है "ये रिश्ता अपनों का",सोचते रह जाते हैं रमेश। कौन कह सकता है कि पहली बार मिले हैं ये। कैसे कैद कर लें इन अमूल्य क्षणों को। अब तक क्यों वंचित रखा उसने इनके सुखद सपनों को। इन छोटी छोटी खुशियों के नैसर्गिक सुख से अपने माँ पिता व बच्चों को।किउसका कोई हक नहीं बनता अपनों से उनके अधिकार छीनने का। माँ की बीमारी ,पिता की लाचारी,बच्चों की जिद्दमिजाजी। यहां तो कुछ नहीं दिखता।सब कितने खुश हैं।

वास्तविकता समझ आ गई है कि हम सबकी असली खुशी तो एक दूसरे के साथ है। 

अपना सुख अपने विश्चास से  संवारने को तैयार है अब रमेश।

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3 *जीवन अमृत*


दरवाजा खटखटाने पर सदैव पांच मिनिट में खुलता दरवाजा तुरंत खुला। सूंदर नवयुवक ने कहा ,                 

"माँ पूजा में हैं ,आइए बैठें"।मैं बैठती ,तभी बाहर उसकी स्कूटी से उनको उतरते देखा। 

"अरे पापाजी भी आ गए।" बेटे ने कहा।

" पापा आपकी दवाई , मेरे पास है ,आपको दूँगी तो मैं ही।"

'माया मौसी' ने तभी कहा," कौन है बेटा राजुल ,लो रीमा भी आ गई कराटे क्लास से।"     

तभी--मुझसे कहा ,"अरे राखी तुम कब आईं ,बच्चों ने बताया नहीं।"---

"ठीक है , जाओ तुम लोग पढ़ो,मैं नाश्ता बनाती हूँ।" मैं चकित कभी इनकी तंदरुस्ती देखती,कभी उन बच्चों की चुस्ती। 

कहाँ तो ये दोनों इतना परेशान रहे। आज इतने स्वस्थ-चौकस । 

"अरे बिटिया क्या देख रही हो इन बेटे-बेटी के रहने से दिन कब बीत जाता है क्या जाने।"

 "मौसीजी आपके तो तीन बेटे हैं न ,जहां तक मुझे पता है।"

---"ये राजुल।"--- 

"किसने बताया ये तो मेरा सबसे छोटा व लाडला बेटा है और अपने बड़े भाइयों का आज्ञाकारी। उसके तीनों भैया उसकी सही जिम्मेदारी देखकर ही तो निश्चिंत हैं। हम जा नहीं सकते। बड़ी नौकरी होने से वे,वहीं से हमारी निगरानी रखते हैं। ---ये दोनों हमारी इतनी देखरेख करते है हम बता नहीं सकते।"-- "राजुल के एम बी ए करने की शर्त है, नौकरी यहीं करूंगा।"--- "हाँ कॉलेज पढ़ती ,अकेली बहिन रीमा तो सब भाइयों की जान है।"

--"डॉक्टरी पढेगी।" 

उनकी खुशी व सुख-संतोष देखकर मैं प्रसन्नचित तोहुई--अनुत्तरित प्रश्न?

समाधान मौसाजी ने बाहर आकर किया ,सुनकर गदगद हो उठी।

"बेटा ,ये दोनों होशियार बच्चे हमारी देखभाल करनेवाली, बीस वर्ष पुरानी पुष्पाबाई के हैं। पिता हैं नहीं, माँ के भी अनायास बिछडने से हमारे बेटों की सुंदर सलाह से ये दोनों अब हमारी जिम्मेदारी व परिवार हैं।"--- "मौसी को तो देखो दौड़ने लगीं हैं। मेरी पेंशन व बेटों का सहयोग ,हम सबको नवजीवन मिला है।"

सुखद परिवर्तन से मंथन किया कि *जीवन अमृत* किसे मिला। वरिष्ठ मौसीजी-मौसाजी, उनके तीनों उच्च पदासीन चिंतित बेटों या माँ के असामयिक विछोह से निराश्रित बच्चों को। 

शायद हम भी सकारात्मक सोचें।

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4 *देवी माँ का भोग*


"बिटवा न जाने कितने दिनों से मन्दिर नाहीं जाने पाए हैं। हमारो मन तो वहीं देवी माँ में अटकौ रहत है। जे कोरोना ने आदमियन को तो दूर करौ ही, अपने भगवान तलक से दूरी बढ़ा दई है। अब इत्ते दिनन बाद खुलौ है तुमसे जात बेरी हमरो जरूरी काम करवानौ है। "

 राजा से कहकर उसकी माँ से कहा,

"सुन लो बहू तनिक खीर पूड़ी हलवा बना लो, भोग लगावे खातिर वहीं बिट्टू के हाथ पहुंचवा देंगे। दान दक्षिणा तो जाने कब से जोड़ के रखे हैं।"

"ओके दादीमाँ ये बिट्टू तो आपकी सेवा के लिए हाजिर है। ऑनलाइन सर्टिफिकेट लेने के पहिले ही आपका काम कर दूंगा।"

 --"चिंता करने का नाईं। " हंसकर कहा । 

दादी ने अपने पास के जाने कितने तुड़े मुड़े नोट निकाले ,बिना गिने ही देने लगीं ।

"वाह ! दादी उस दिन तो आपने ये मुझे नहीं दिए"--

"हमरे पास कछु नहीं कहकर।--और आज ये खजाना। हूँ-- " 

"अरे तुम लोग का जानो ,जे सब अशीष तुमन लोगन के लिए ही मांगत रहत हैं प्रभु से। *सही जगह* देना बचवा ताकि मोहे संतोष बना रहे।"

"जो आज्ञा दादी।" हँसकर कहा 

घर से निकलने के पहिले किशोरवय राजा ने माँ से टिफ़िन व दादी से नोटों की पोटली ली व अपनी साईकल से निकल पड़ा।

 "बेटे अभी भी सावधानी रखना ,सब दूर  रहकर ही अच्छे से करना। दादी भी खुश होंगी।"

 मम्मी को बिना कुछ कहे हाथ हिलाकर सहमति दी ,चल पड़ा। देवी माँ का मन्दिर थोडी ही दूर था। बड़ी भीड़ दिखी ,लोग दूर-दूर खड़े व सभी कुछ न कुछ चढ़ावा मंदिर में देने लाये हैं। वो चुपचाप एक निश्चित दूरी पर खड़ा होकर अपनी बारी का इंतजार करने लगा। 

तभी वहीं लाइन से बाहर बैठी एक वृद्धा को देखा,अच्छे पहिरावे में तो रहीं पर उदास मुखड़ा ,जाने क्यों ? उसको रहा नहीं गया,पास जाकर पूछा ,

"मांजी कोई प्रॉब्लम।" 

"नहीं बेटे ठीक हैं ,पर--वो देखो, ---बाबूजी भूखे बैठे हैं।" सकुचाकर बोलीं, 

"--घर से निकले व भटक गए। पास का रुपया पैसा खाना सब खत्म हो चुका। संकट में आकर सोचा ,चलो देवी माँ के मंदिर चलते हैं कुछ मदद की आस रही। पर किसी से मांग नहीं सकते व हमपर किसी का ध्यान ही नहीं। और ये महामारी--अब देवी माँ की कृपा का भरोसा है।" 

दुःखी होकर कहा उन्होंने।

धर्मसंकट में, सोचा राजा ने, --अपने सर्टिफिकेट का काम बाद में होगा। अभी दादी की दान दक्षिणा ,माँ की खीर पूड़ी सब देवी माँ को ही तो अर्पण करना है। 

अनायास मन में आया कि दादी ने कहा है *सही जगह देना है*। आज हमारे लिए, इतनी अच्छी सही अधिकारी कौन हो सकतीं हैं। मंदिर की देवी माँ को वहीं से प्रणाम किया। सामने बैठी महिला को भी चरण छूने से न रोक सका।

"लीजिये माँजी मैं आपके लिए ही लेकर आया हूँ। ये भोजन व कुछ रुपये ,आपके सुरक्षित घर पँहुचने के लिए।--" पुनः प्रणाम किया।  

उत्सुकता से राह देख रही दादीजी व माँ ने घर लौटने पर बहुत खुश दिख रहे राजा से पूछना चाहा। 

"अरे दादी आज तो मुझे सच में ही आपके भगवान मिले हैं और आपकी देवी माँ को वही *भगवान भोग* अर्पित कर दिया मैंने।"

दादी पापा मम्मी ने जब अपने राजा की बातें सुनीं। तो दादीजी के नेत्रों से अश्रु धार बह चली। गले से लिपटा लिया। बोलीं " हमारे बिट्टू ने तो आज हमारा उद्धार कर दिया, हम तर गए।

 "इतना *बड़ा कारज* तो शायद हम भी न कर पाते।" 

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5 *जमीन से जुड़े*


" छोटी सी गोल-मटोल पांच छह साल की प्यारी सी वो बच्ची बिल्कुल नया फ्रॉक पहिनकर अपने दोस्त का जन्म दिन मनाने अपनी बहिन के साथ जाती दिखी।  हाथ में छोटा सा कलरफुल गिफ्ट पैक पकड़े प्रसन्न व चहक रहीं बच्चियों ने अपनी सहेली ,उसकी मम्मी डॉक्टर ऑन्टी के घर पंहुचते ही गेट खोल लिया। " 

*कुत्ते से सावधान* बोर्ड 

उन दोनों नासमझ ने कहाँ देखा। 

---उनकी माँ भी हिदायत देना भूल गईं व डॉक्टर आंटी भी नहीं जान पाईं।--

तभी ओह ! उनके घर का बड़ा अलसेशियन डॉगी दौड़ा। दोनों बच्चियां घबराकर भागीं ,छोटी डरकर गिरी व उसके घुटने के ऊपर उसने झपट्टा मार कर बुरी तरह काट लिया। 

सड़क पर गिरी नन्ही मुन्नीयों को तड़पते-रोते-चिल्लाते उस ऑफीसर्स कॉलोनी में बहुत लोग देखते रहे।  दुःखद---  किसी की हिम्मत उनको बचाने की नहीं हुई। 

तभी वहीं बड़े बंगले वाले कर्नल साहब ने उन बच्चियों को देखा। ऑफिशीयल काम से कहीं जाने हेतु अपनी वर्दी में तैयार, जूते पहनते कि घर के सामने ये दृश्य देख सादी चप्पलों में अपने घर से भागे। खून से लथपथ बालिका को वैसे ही दोनों बांहों में उठाया और कुछ ही दूर स्थित अस्पताल की ओर भागते ले चले। 

आश्चर्य से पड़ौसी देखते रह गए, रोंगटे खड़े हो चले। अरे!----ये तो सिर्फ अपने में व्यस्त रहे हैं हम तो इन्हें अहंकारी समझते रहे पर--। आज तो मानो उन अनजान बच्चियों के लिए आप देवदूत बन गए।

 हाल ही में मिलिट्री से रिटायर पूरे समय अपडेट-फिट रहने वाले फौजी साहब को देखकर लगता कि वे हम सिविलियन्स को तवज्जो नहीं देना चाहते न किसी से जल्दी बात करते।  

पुनः दूर तक सब उनको  देखते रह गए -- 

ओह ! आज वे पैदल ही लंबे डग भरते नन्ही को हौसला देकर चिपटाये दौड़ रहे हैं । घबराई गोदी की बच्ची रोना भूल ,चुपचाप उनको देखती रही व दूसरी साथ में भागती जाती । उनकी कड़क वर्दी बहते लहू से लाल होती जाती। 

हमेशा गरिमापूर्ण वेल ड्रेस्ड अनुशासित,नियमित रहने वाले बड़े साहब को इन क्षणों में कुछ याद नहीं । वे केवल बच्ची को सुरक्षित पंहुचाने की चिंता में रहे। बच्ची के माँ-पिता ,घरवाले भी ये देखकर दंग होते , पीछे आते।

 बिटिया को डॉक्टर के सुरक्षित हाथों में सौंपकर ही  संतोष व तसल्ली मिली उनको। 

"सही जगह आकर भी दूसरे लोगों में किसी के पास कहने को शब्द नहीं मिल रहे। " 

कर्नल साहब ने छोटी को हौले से थपथपाया व लौटते ,तभी दोनों बच्चियां अनायास उनसे लिपटकर रो पड़ीं। वे भी द्रवित होकर उन्हें स्नेहस्पर्श दे वापस चल पड़े। घर पंहुचते ही उनके किशोर बेटे ने रुधिर लिप्त कपड़ों में ही गर्वित होकर उनको प्यार से जकड लिया। 

"वाह ! आपने कितना अच्छा किया, वे लड़कियां अब ठीक जगह पँहुच गईं हैं ,हम सब तो बहुत डर गए।" --- "रियली आई फील सो प्राउड ,यू आर माय लविंग पापा। " 

तभी उन्होंने देखा,उनकी कॉलोनी के कई अधिकारी व उनके परिजन बच्चे बडे सब स्तब्ध-निःशब्द होकर वहां एकत्रित हैं। किंकर्तव्यविमूढ़-अनिर्वचनीय --।

 मानो कुछ भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से संकोच कर रहे हैं।

"क्या बात है आप सब यहां"--"चलिये अंदर बग़ीचे में बैठते हैं"---

"दर्शन चेयर्स डालो तुरंत" अर्दली को आवाज दी।

"नहीं !नहीं! सर आप तो आफिस जाने वाले हैं न । इस दुर्घटना ने आपको वैसे ही देर कर दी,आप कपड़े बदलिये"।

 एकस्वर में वे बोले। 

इस बार खिलखिलाकर हंसे कर्नल साहब," पहिली बात ये सर् नहीं कहिए। जैसे आप वैसे हम"---

"हाँ कार्य क्षेत्र अलग हैं। सबको अपना समर्पण बनाये रखना होता है बस।"  

"जी हम लोग ही आपका ये लाइफ स्टाइल देखकर दूरी बनाए रखे। गलतफहमी हमें बनी रही, लगा--- "

"बस बस आगे से हम सब एक परिवार के हैं ,एक दूसरे के सहयोग के लिए सदैव तैयार ,हर सुख-दुःख  या कोई और जरूरत के लिए।"  उन्होंने कहा।

"जी आपने आज हमको कितने बड़प्पन से  मानवता-अपनत्वता सिखा दी है। सच्ची सीख देकर ।" 

"आज तो हमारी वे छोटी नन्ही बच्चियां भी आपको दुआ दे रही होंगी।" 

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 लेखिका 

सादर-अलका मधुसूदनपटेल।